सोमवार, 21 सितंबर 2020

उत्तराखंड: राकेश ने 25 लाख की अंगूठी लौटाकर पेश की ईमानदारी की मिशाल… 51 हजार का मिला इनाम!


ऐसे ही उत्तराखंड का नाम विख्यात नहीं है... यहां की भूमि देवो की भूमि है, कई चीजों के लिए उत्तराखंड का नाम आपको पूरे देश भर में प्रसिद्ध मिलेगा, लेकिन इन्हीं में से एक पहाड़ के लोगों का प्रेम और इमानदारी भी है. इसका  एक बड़ा उदाहरण आज राकेश रावत ने मिशाल के तौर पर पेश किया है, राकेश रावत जो गांव रामपुर न्यालसू के निवासी है,और जो केदारनाथ में काम करते है ने एक बार फिर उत्तराखंड का नाम को गौरवान्वित कर दिया। दरअसल कुछ दिन पहले उन्हें काम करते समय एक सोने की अंगूठी मिली और उन्होंने इस तुरंत लौटने का फैसला लिया।

दरअसल कुछ दिन पहले राजस्थान से यात्रा करने आए श्रद्धालुओं की अंगूठी केदारनाथ में ही कहीं खो गई थी, जिसकी कीमत लगभग 25 लाख थी। और जो काम करते समय राकेश को मिल गयी थी, जिसके बाद उन्होंने तुरंत यात्रियों से संपर्क किया और उन्हें अंगूठी वापस देने का फैसला किया। उनकी ईमानदारी को देख श्रद्धालु बहुत ज्यादा प्रभावित हुए और उन्होंने राकेश को ₹51000 इनाम के रूप में दिए .


एक बहुत ही गौरव की बात है कि आज भी लोगों में मानवता जीवित है, वहीं राकेश की इमानदारी पर पूरे प्रदेश को गर्व है। उनके इस काम से एक बार फिर पुरे प्रदेश का नाम ऊँचा हो गया.

रविवार, 20 सितंबर 2020

Khatima खटीमा शहर का नाम आखिर खटीमा क्यों पढ़ा?

  खटीमा का नाम #खटीमा क्यों पढ़ा लोगो की अलग अलग मान्यताएं है?
कुछ लोगो का कहना है कि-
बहुत समय पहले #खटीमा मार्केट जो है वहां बहुत बडा आम का बगीचा हुआ करता था। जिसमें बहुत ही खट्टे आम हुआ करते थे। जो खट्टे-आम के बाजार के नाम से जाना जाता था।जो बाद में खटेमा,और फिर खटीमा नाम से जाना गया।
यह भी मान्यता है कि -
मान्यवर नबाब मेंहदी अलीखान की दो बीबी थी एक का नाम सितारा बेगम दुसरी का नाम #खतिमा बेगम था।
 सितारा के नाम से #सितारगंज और खतिमा के नाम से #खतिमा पढ़ा। कुछ समय पहले तक रेलवे टिकट और रेलवे स्टेशन पर #खतिमा लिखा था बाद मे खटीमा हुआ नानक मत्ता गुरूद्वारे के गेट न02पर नबाब मेंहदी अली खांन का नाम आज भी लिखा हुआ है।
और कुछ लोग यह भी बोलते है - बहुत समय पहले की बात है , "यहाँ मलेरिया और काला बुखार का प्रकोप महामारी का विकराल रूप ले लेता था। लोग बीमार हो जाते थे और वो खाट में पड़ कर ही वैद्य के यहाँ जाते थे। इसीलिए इसका नाम खटीमा अर्थात् खाटमा पड़ गया।’’

 कुछ लोगो का यह भी है कहना कि- बहुत समय पहले यहां बाजार के बजाय लोगों का घर हुआ करता था। एक छोटा व्यापारी भटकते हुए यहां से जा रहा था।उसने एक व्यक्ति को अपने घर के दरवाजे पर खड़ा देखा तो उसने इस  जगह का नाम पूछा। जब तक वह कुछ बोल पता तब तक उस की बीबी जो नाराज थी। दरवाजा बंद कर दिया और जोर से खट की आवाज आया जिसे कारण उसकी उंगली दब गई और मुह से माँ की आवाज निकला।
दोनो आवाज व्यापारी ने एक साथ सुनी और तब से खटीमा नाम से जाना जाता है।😜

थारू समाज के अनुसार यह भी है मान्यता-"थारू समाज में विवाह के समय जब बारात जाती है तो वर को रजाई ओढ़ा दी जाती है और खाट पर बैठा कर ही उसकी बारात चढ़ाई जाती है। वैसे आजकल रजाई का स्थान कम्बल ने ले लिया है। इसलिए भी इस जगह खाटमा अर्थात् खटीमा पुकारा जाता है।’’

खटीमा भारत के उत्तराखण्ड राज्य के #ऊधमसिंह नगर जिले में स्थित एक नगर निगम बोर्ड है। खटीमा नगर पंचायत को वर्ष 1988 में उच्चीकृत कर नगर पालिका का दर्जा दिया गया था। यहाँ पर कुमाऊँनी लोग बड़ी संख्या में बसे हुए हैं जो पिथौरागढ़ के पहाड़ी क्षेत्र से यहाँ आकर बसे हैं। यहाँ पर सिखों और मुसलमानों की भी बहुत बड़ी संख्या है। मुख्य भाषाएँ हैं हिन्दी और कुमाऊँनी (पहाड़ी)। भूस्कावामित्व का मुद्दा अहम है क्योंकि पर्वतीय व थारू जनजाति के मध्य हुई जमीन की खरीदफरोख्त अब तीन पीढ़ी आगे बढ़ चुकी है और अभी भी अभिलेखों में भूस्वामी मूल व्यक्ति ही हैं।

 खटीमा यों तो एक बहुत पुराना क़स्बा है । यह थारू जाति का आदिवासी क्षेत्र है।
खटीमा को मुगलों के शासनकाल में इसे थारू जन-जाति के लोगों ने आबाद किया था।
यहाँ के मूल निवासी महाराणा प्रताप के वंशज राणा-थारू है।

 2001 की जनगणना  खटीमा  में 1,20,487 की आबादी थी. पुरुषों और महिलाओं की जनसंख्या 46% से 54% है. खटीमा 66% की औसत साक्षरता दर, 59.5% के राष्ट्रीय औसत से अधिक है: पुरुष साक्षरता 73% है, और महिला साक्षरता 58% है. यहाँ  मुख्य रूप से कुमाऊंनी लोगो का  क्षेत्र  तय हो चुका है.  शहर में एक बड़े आकार का सिख और मुस्लिम आबादी है. मुख्य  भाषाओं हिंदी और कुमाऊंनी (पहाड़ी)  हैं

 

 

 

खटीमा में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम निर्माण के लिए रास्ता अब साफ हो चुका है।

 

खटीमा में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम निर्माण के लिए रास्ता अब साफ हो चुका है। वन विभाग ने भूमि देने की स्वीकृति पर मुहर लगा दी है। जल्द वन विभाग के जमीन पर खेल मैदान तैयार होगा। विभाग इसे लेकर तैयारियों में जुटा है। अब खिलाड़ियों को अभ्यास के लिए बेहतर सुविधाएं होंगी।

खटीमा ब्लॉक के ग्राम चकरपुर में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम निर्माण के लिए पांच साल से प्रक्रिया चल रही थी। कई अड़चनों को दूर करते हुए स्टेडियम निर्माण की हरी झंडी मिल गई है। वर्ष 2016 में खटीमा में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम बनाने की मांग हुई तो इसकी जिम्मेदारी जिला युवा कल्याण अधिकारी को सौंपी गई थी। इसके लिए चकरपुर वन चेतना केंद्र के डेढ़ हेक्टेयर भूमि चयनित की गई। वन विभाग की भूमि हस्तांतरण को लेकर एक साल तक कागजात पूरी करने और औपचारिकताएं पूरी नहीं हो सकीं। इसके बाद जिला युवा कल्याण विभाग ने स्टेडियम बनाने की फाइल खेल विभाग को हस्तांतरित कर दी। वर्ष 2017-18 से जिला खेल विभाग खटीमा में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम बनाने को लेकर पत्राचार आरंभ किया। बीच में कई समस्याएं आईं। इसमें कहीं डिजिटल मैप फेल हुआ तो कहीं कुछ अड़चनें आईं। अंतिम दौर में चकरपुर स्टेडियम डेढ़ हेक्टेयर की भूमि के बदले चकरपुर वन प्रभाग को पौड़ी जनपद के थैलीसैंड़ में तीन हेक्टेयर भूमि दी जाएगी। इस भूमि पर वन विभाग को पौधे रोपने एवं उन पौधों के 10 सालों तक संरक्षण के लिए क्षतिपूर्ति राशि भी खेल विभाग की ओर से दी जाएगी। भूमि के लिए लगभग सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हैं।

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चकरपुर वन क्षेत्र में स्पो‌र्ट्स स्टेडियम बनाने के लिए भूमि संबंधित सभी कार्य लगभग पूरे कर लिए गए हैं। फाइल और दस्तावेज ऑनलाइन होने के बाद जमीन विभाग की होगी। इसके बाद स्टेडियम बनाने के लिए प्रस्ताव तैयार किया जाएगा और आगे की कार्रवाई की जाएगी।

- रशिका सिद्दीकी, जिला क्रीड़ा अधिकारी ऊधम सिंह नगर

शनिवार, 19 सितंबर 2020

खटीमा के जंगल में घूम रहे नेपाली हाथी, दहशत में ग्रामीण

नेपाल की शुक्ला फांटा सेंचुरी से निकलकर सितरागंज तक पहुंचने वाले दोनों हाथी खटीमा के जंगल में विचरण कर रहे हैं। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश वन विभाग की टीम लगातार उनकी निगरानी कर रही है। शारदा नदी पार कर दो नेपाली हाथी 15 सितंबर की रात सेल्हा और मझारा गांव पहुंच गए थे। हाथियों ने कई किसानों की फसलों को खराब कर दिया था।

ग्रामीणों और वन विभाग की टीम के खदेड़ने पर हाथी पीलीभीत टाइगर रिजर्व की बराही रेंज में दाखिल होने के बाद महोफ रेंज होते हुए रात में उत्तराखंड तरफ निकल गए थे। 16 सितम्बर को नेपाली हाथियों ने खटीमा क्षेत्र के कई किसानों की फसलों को नुकसान पहुंचाते हुए मझोला क्षेत्र से निकलकर उत्तराखंड के कस्बा सितारगंज क्षेत्र की तरफ धाबा बोला था।

उनकी वाचिंग करने के लिए दोनों प्रांतों की टीम जुटी हुई है जो उन्हें नेपाल की तरफ वापस ले जाने का प्रयास कर रही है। गुरूवार की शाम के समय तक दोनों हाथी खटीमा के जंगल के अंदर पहुंच गए। पिछले वर्ष जिन दो नेपाली हाथियों ने रामपुर तक पहुंचकर उत्पात मचाया था यह दोनों हाथी वहीं होने की बात वन विभाग के अधिकारी कह रहे हैं।

पीलीभीत टाइगर रिजर्व के एसडीओ प्रवीण खरे ने बताया कि खटीमा जंगल के बेहद अंदर दोनों हाथी है। जंगल के रास्तों से ही उन्हें शुक्ला फांटा सेंचुरी भेजने की कवायद की जा रही है। टीमें लगातार उनकी निगरानी कर रही हैं।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

उत्तराखंड- राज्य आने वाले लोगों के लिए राहत भरी खबर ,बॉर्डर पर अब नहीं होगा कोरोना टेस्ट

 उत्तराखंड की सीमा पर बाहर से आने वाले लोगों के कोरोना की जांच के फैसले के विरोध को देखते हुए सरकार ने कदम पीछे खींच लिए हैं अब बॉर्डर पर जांच जरूरी नहीं है लेकिन पर्यटन फिल्म शूटिंग जैसी गतिविधियों के लिए लोगों को नेगेटिव रिपोर्ट दिखानी होगी इसके अलावा गर्भवती महिलाओं 10 साल के कम उम्र के बच्चे, बुजुर्ग, कारोबारियों, बिजनेसमैन, वीआईपी अधिकारियों एवं न्यायाधीशों को बॉर्डर पर जांच कराने की जरूरत नहीं है इसके अलावा तत्काल अत्यावश्यक के काम से बाहर जाने के बाद वापस आने वाले या बीमारी होने पर किसी काम से बाहर जाने के बाद वापस आने वाले और परिजनों की देखभाल के लिए आने वाले लोगों की बॉर्डर पर जांच नहीं होगी इसके अलावा तीन-चार दिनों के लिए उत्तराखंड आने वाले लोगों के लिए कोविड-19 की टेस्ट की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है लेकिन सरकार द्वारा जारी गाइडलाइन का पालन करना होगा।

जब गांधी से पूछा गया - बलात्कार होने पर किसी महिला को क्या करना चाहिए?

कुछेक साल पहले अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर एक विचारोत्तेजक आलेख लिखा था. इस आलेख का मंतव्य यह सवाल उठाना था कि क्या बलात्कार की निश्चित आशंका के डर से जौहर सराहनीय था? इस प्रश्न को यदि हम आज की नारीवादी कसौटियों पर कसने चलें, तो इसमें इस बात की अनदेखी हो जाने का खतरा रहता है कि हमारे आधुनिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का विकास क्रमिक रूप से हुआ है. सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से एक तटस्थ अध्येता के लिए देशकाल, परिस्थिति, प्रचलित मूल्य, संदर्भ और परिप्रेक्ष्य इत्यादि का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है. संभव है कि जो चुनौतियां उस समय की महिलाओं के सामने जिस रूप में थीं, उसमें उस समय के सामाजिक चिंतन के हिसाब से उन्होंने अपनी जान देने का निर्णय ले लिया हो.

सात सौ साल पहले की किसी परिघटना का मूल्यांकन यदि आज के समानतावादी और स्वतंत्रतावादी विचारों के आधार पर कठोरतापूर्वक करने बैठ जाएं, तो हम सरासर यह भूल कर बैठेंगे कि आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक चेतना पूरे वैश्विक मानव समाज में धीरे-धीरे क्रमिक रूप से आई है. और इसलिए तत्कालीन परिस्थितियों की विकरालता को देखते हुए हमें अपने पूर्वजों या पूर्वजाओं के प्रति थोड़ी सहानुभूति से ही काम लेना चाहिए.

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लेकिन साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना पड़ सकता है कि आज की कोई कलाकृति हमारी लड़कियों या महिलाओं को यह संदेश सूक्ष्म रूप से भी न दे बैठे कि बलात्कार के पहले या बाद में आत्महत्या सराहनीय है. वास्तव में, यदि सामाजिक यौन केंद्रितता को एक किनारे रख दें, तो बलात्कार केवल एक शारीरिक हमला और दुर्घटना मात्र है.

लेकिन जब हम महिलाओं की यौनिकता को ही उनके व्यक्तित्व का एकमात्र केंद्र बना देते हैं, जब हम उनके यौनांग या जननांग की ‘पवित्रता’ को ही उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बना देते हैं, तो यह हमारी महिलाओं में इतनी आत्मघृणा या इतने आत्मतिरस्कार का भाव भर देता है कि वे ऐसे मामलों में कई बार अपनी जान ले बैठती हैं. कई बार पुरुषों के साथ हुए बलात्कार में भी यही बात निकलकर आती है. बलात्कार से पीड़ित पुरुषों द्वारा आत्महत्या की खबरें आती ही रहती हैं.

यह एक कड़वी सच्चाई है कि अतीत में साम्राज्य स्थापित करने के लिए लड़े गए युद्धों और जातीयतावादी संघर्षों में भी महिलाओं पर विशेष अत्याचार हुए. दुनिया के कई युद्धग्रस्त हिस्सों में आज भी ऐसा हो रहा है. लेकिन भारतीय संदर्भ में इसे केवल मुस्लिम आक्रमणकारी बनाम राजपूत शासकों की चक्की में पिसती महिलाओं के नजरिए से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि अन्य युद्धों में भी कमोबेश ऐसा हुआ हो सकता है.

यह नरपशुओं के बीच हुए युद्धमात्र की एक सच्चाई होती है. उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के मुक्ति-संघर्ष में तो मुस्लिम सैनिकों ने ही लाखों मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार किए. वहां के पुरुषों के साथ भी सैनिकों ने बलात्कार किए. वहां उन्होंने ‘बंगभाषी मुसलमान बनाम अन्य मुसलमान’ की दुर्भावना की आड़ में ऐसा किया. लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसमें और जौहर में कोई फर्क नहीं किया जा सकता. बलात्कार-पीड़िता बांग्लादेशी मांओं, बहनों, पत्नियों और बेटियों को उनके अपने परिवार ने, अपने समाज ने ही अपनाने से इनकार कर दिया. हज़ारों-लाखों की संख्या में उन परित्यक्ताओं या बहिष्कृताओं ने आत्महत्या की.

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प्रकारांतर से क्या वह जौहर जैसा ही नहीं था? कहा जाता है कि जिन नग्न लड़कियों और महिलाओं को फांसी लटकने का अन्य कोई साधन नहीं मिला, उन्होंने अपने ही बालों की चोटी से लटककर फांसी लगा ली. इस तरह उनकी हत्या बलात्कारियों ने नहीं की, बल्कि अपने ही समाज और परिजनों द्वारा लांछित-बहिष्कृत किए जाने की सामाजिक बर्बरता ने उनकी हत्या की. इस तरह बलात्कार-पूर्व जौहर या बलात्कार-बाद की आत्महत्या, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. और वह मर्दाभिमानवादी या ‘पवित्रतावादी’ सिक्का है, महिलाओं के जननांग को ही उनके संपूर्ण अस्तित्व का केन्द्र बना देना या उनकी ‘पवित्रता’ की अनिवार्य शर्त बना देना.

सदियों की मानसिक पराधीनता और आत्महीनता की वजह से स्वयं महिलाओं ने ही इस सिक्के को हाथों-हाथ लिया और किसी पुरुष द्वारा किए गए एक शारीरिक हमले को अपने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया. हर दिन बढ़ते बलात्कार के मामलों और उस पर आने वाली राजनीतिक-सामाजिक प्रतिक्रियाओं को देखें तो इस विषय में महात्मा गांधी के विचार बरबस याद आते हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब दुनियाभर के फौजी ‘शत्रुदेश’ की महिलाओं के साथ बलात्कार को युद्धनीति के रूप में स्वीकार कर चुके थे, उस दौरान फरवरी, 1942 में किसी महिला ने उसी संदर्भ में महात्मा गांधी को पत्र लिखकर उनसे बलात्कार के बारे में तीन सवाल पूछे -

यदि कोई राक्षस-रूपी मनुष्य राह चलती किसी बहन पर हमला करे और उससे बलात्कार करने में सफल हो जाए, तो उस बहन का शील-भंग हुआ माना जाएगा या नहीं?

क्या वो बहन तिरस्कार की पात्र है? क्या उसका बहिष्कार किया जा सकता है?

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ऐसी स्थिति में पड़ी हुई बहन औऱ जनता को क्या करना चाहिए?

एक मार्च, 1942 को गुजराती ‘हरिजनबंधु’ में गांधीजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- ‘…जिस पर बलात्कार हुआ हो, वह स्त्री किसी भी प्रकार से तिरस्कार या बहिष्कार की पात्र नहीं है. वह तो दया की पात्र है. ऐसी स्त्री तो घायल हुई है, इसलिए हम जिस तरह घायलों की सेवा करते हैं, उसी तरह हमें उसकी सेवा करनी चाहिए. वास्तविक शील-भंग तो उस स्त्री का होता है जो उसके लिए सहमत हो जाती है. लेकिन जो उसका विरोध करने के बावजूद घायल हो जाती है, उसके संदर्भ में शील-भंग की अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि उस पर बलात्कार हुआ. ‘शील-भंग’ शब्द बदनामी का सूचक है और इस तरह वह ‘बलात्कार’ का पर्याय नहीं माना जा सकता है. जिसका शील बलात्कारपूर्वक भंग किया गया है, यदि उसे किसी भी प्रकार निन्दनीय न माना जाए तो ऐसी घटनाओं को छिपाने का जो रिवाज हो गया है, वह मिट जाएगा. इस रिवाज के खत्म होते ही ऐसी घटनाओं के विरुद्ध लोग खुलकर चर्चा कर सकेंगे.’

गांधीजी के लिए इस लेख का शीर्षक था- ‘बलात्कार के समय क्या करें?’ इस लेख में गांधी आगे लिखते हैं- ‘जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा-अहिंसा का विचार न करे. उस समय आत्मरक्षा ही उसका परम-धर्म है. उस समय उसे जो साधन सूझे उसका उपयोग कर उसे अपने सम्मान और शरीर की रक्षा करनी चाहिए. ईश्वर ने उसे जो नाखून दिए हैं, दांत दिए हैं और जो बल दिया है वह उनका उपयोग करेगी. और उनका उपयोग करते-करते वह जान दे देगी. जिस स्त्री या पुरुष ने मरने का सारा डर छोड़ दिया है, वह न केवल अपनी ही रक्षा कर सकेंगे, बल्कि अपनी जान देकर दूसरों की रक्षा भी कर सकेंगे.’

हालांकि गांधी यह भी मानते थे कि महिलाओं को स्वयं में निर्भयता, आत्मबल और नैतिक बल भी पैदा करनी होगी. जैसा कि वे 14 सितंबर, 1940 को ‘हरिजन’ में लिखते हैं कि ‘यदि स्त्री केवल अपने शारीरिक बल पर या हथियार पर भरोसा करे, तो अपनी शक्ति चुक जाने पर वह निश्चय ही हार जाएगी.’ इसलिए जान देने की प्रेरणा या इसका साहस होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन वह पहले ही हार मानकर आत्महत्या के रूप में न हो, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन की चाह में लड़ते-लड़ते जान देने के अर्थ में हो.

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यदि किसी जमाने में महिलाओं के अस्तित्व या व्यक्तित्व को उनकी मानवीय संपूर्णता में न देखकर, केवल उनके जननांगों तक सीमित कर दिया जाता था, तो उसकी परिणति उनके द्वारा भय, ग्लानि या शर्म के मारे आत्महत्या कर लेने के रूप में होती थी. यहां तक कि उनके परिजनों द्वारा उन्हें जबरन मार दिए जाने या बहिष्कृत किए जाने की स्थिति बनती थी.

आज हम उस अवस्था से बहुत हद तक आगे बढ़ चुके हैं. मानने लगे हैं कि भय, ग्लानि और शर्म की स्थिति तो उन पर आक्रमण करने वालों के लिए होनी चाहिए. ऐसे आक्रमणों में चोट खाकर बच गईं महिलाओं के प्रति केवल वैसी ही सहानुभूति होनी चाहिए, जैसे किसी अन्य आक्रमण में चोट खाए हुए के प्रति. यही भावना स्वयं आक्रमण की शिकार महिलाओं की भी स्वयं के प्रति होनी चाहिए. यही बात बलात्कार से आक्रमित पुरुषों या अन्य लिंगों पर भी लागू होती है. यदि सिनेमा, साहित्य या कई बार राजनीति के जरिए भी यौन केंद्रित शर्म, आत्मघृणा और ग्लानि की वजह से आक्रमितों द्वारा की गई आत्महत्या का महिमामंडन हो रहा हो, तो हमें फिर से सोचने की जरूरत होगी.

ऊपर जिक्र किए गए आलेख की थोड़ी और बात करें तो अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने जो सवाल उठाए थे, वे इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि भारत की ज्यादातर महिलाओं का फिल्म-दर्शक और उपभोक्ता के रूप में पर्याप्त क्रिटिकल और जागरूक बनना अभी बाकी है. और जब स्वयं अभिनेत्रियां ही ऐसे विचारोत्तेजक सवाल उठाने का साहस दिखाती हैं, तो वे इस महत्वपूर्ण माध्यम के लिए भी नई संभावनाओं को जन्म देती हैं. किसी भी सेंसरशिप या हो-हंगामे से अधिक हमें ऐसी चर्चाओं और संवादों की जरूरत है.b

उत्तराखंड : कोरोना संक्रमण कंट्रोल न हुआ तो 21 से नहीं खुलेंगे स्कूल

 

कोरोना संक्रमण के लगातार बढ़ते ग्राफ को देखते हुए उत्तराखंड सरकार स्कूलों को 21 सितंबर से न खोलने पर गंभीरता से विचार कर रही है। सरकार के प्रवक्ता मदन कौशिक का कहना है कि कोरोना संक्रमण का आंकलन किया जा रहा है। यदि जरूरी महसूस हुआ तो सरकार स्कूलों को नहीं खोलेगी।

मालूम हो कि अनलॉक-4 के तहत केंद्र सरकार ने स्कूलों को 50 फीसदी शिक्षक-कार्मिक क्षमता के खोलने की अनुमति दी है। इसके साथ ही नवीं से 12 वीं कक्षा तक के छात्रों को शिक्षकों से गाइडेंस लेने के लिए आने की छूट भी दी है। इसके लिए उन्हें अपने अभिभावकों से अनुमति जरूर लेनी होगी।

राज्य में कोरोना संक्रमण के केस लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। सरकार का मानना है कि इस स्थिति में रियायत देना नुकसानदायक भी साबित हो सकता है। सरकारी प्रवक्ता ने कहा कि केंद्र सरकार ने सभी शैक्षिक संस्थानों को 30 सितंबर तक बंद रखने की व्यवस्था दी है। 21 सितंबर से जिला प्रशासन की अनुमति से स्कूलों को खोलने और अभिभावकों की सहमति से छात्रों के स्कूल आने की रियायत दी है। वर्तमान में स्कूल ऑनलाइन पढ़ाई करा रहे हैं, इसलिए यह इतना भी जरूरी नहीं है। संक्रमण पर नियंत्रण होने पर ही इसकी इजाजत दी जाएगी।

सात सवाल अभिभावकों के: 
- नवीं से 12 वीं कक्षा के छात्रों को स्कूल जाने की छूट है तो क्या इन कक्षाओं के सभी छात्र स्कूल आ सकते हैं? 
- यदि अभिभावकों से अनुमति लेकर सभी छात्र स्कूल पहुंच गए तो सुरक्षा का इंतजाम क्या होगा? 
- सोशल डिस्टेंसिंग का पालन और छात्रों की जांच किस प्रकार होगी? क्या इसका स्कूल में इंतजाम होगा?
- जब छात्र स्कूल आएंगे तो वो वहां कितना समय रह सकते हैं? क्या नियमित स्कूल के समान कक्षा चलाई जाएगी?
- जब 50 फीसदी शिक्षक स्कूल आएंगे तो बाकी 50 फीसदी विषयों के बारे में छात्रों के सवालों का समाधान कैसे होगा? 
- स्कूल आने की छूट नवीं से 12 वीं कक्षा के छात्रों को है तो क्या प्राथमिक और जूनियर के शिक्षकों की आने की जरूरत नहीं है? 
- यदि स्कूल में कोरोना संक्रमण होता है तो फिर  इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? 

60 फीसदी प्राइवेट स्कूल भी है विरेाध में
21 सितंबर से स्कूल को खोलने की व्यवस्था से ज्यादातर प्राइवेट स्कूल भी सहमत नहीं हैं। प्रिंसीपल प्रोगेसिव स्कूल एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रेम कश्यप के अनुसार 21 सितंबर से स्कूल खोलने के पक्ष में ज्यादा लोग नहीं हैं। 60 फीसदी स्कूल संचालक फिलहाल पढ़ाई को ऑनलाइन ही रखना चाहते हैं। फिरभी ऐहतियातन कुछ गाइडलाइन स्वत: तय की गई हैं। इसके अनुसार एक कक्षा में 15 से ज्यादा छात्रों को नहीं बिठाया जाएगा। संख्या बढ़ने पर क्लासरूम और शिक्षकों की संख्या को बढाया जाएगा।

अभिभावकों को भी निर्देश दिए जा रहे हैं कि यदि वो अपने बच्चे को स्कूल भेजते हैं तो सेनेटाइजर, मास्क, ग्लव्स, पानी की बोतल भी साथ में अनिवार्य रूप से भेंजे। ज्यादा समय तक रुकने की स्थिति में छात्रों को अपना टिफिन साथ लाना होगा, लेकिन उसे एक दूसरे के साथ शेयर नहीं किया जाएगा।

नानकमत्ता हत्याकांड का पर्दाफाश, तीन गिरफ्तार, इसलिए हुआ एक परिवार के चार लोगों का मर्डर

एक ही परिवार के चार लोगों की गला रेतकर हुई हत्या का पुलिस ने पर्दाफाश कर लिया है। हत्या डकैती के मकसद से की गई थी। इस मामले में पुलिस ने तीन...